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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७६ करने के बाद अब यह स्पष्ट करते हैं कि संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति का दूसरे प्रकार से भी एक स्पर्धक होता है जावइया उ ठिईओ जसंतलोभाणहापवत्तंते । अकयसेढिस्स || १७८ ॥ तं इगिफड्ड संते जहन्नयं ४७१ उ — और, ठिईओ स्थितियां, शब्दार्थ - जावइया - जितनी, जसंतलोभाणहापवत्तते यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में यशः कीर्ति और अंतिम लोभ – संज्वलन लोभ की, तं - उसका, इगिफड्ड - एक स्पर्धक, - संते - सत्ता में, जहन्नयं - जघन्य, अकयसे ढिस्स - जिसने श्र ेणि नहीं की है । गाथार्थ - जिसने श्रेणि नहीं की है, ऐसे जीव के यथाप्रवृत्त - करण के चरम समय में यशःकीर्ति और संज्वलन लोभ की जितनी स्थितियां सत्ता में हों, उनका एक जघन्य स्पर्धक होता है । विशेषार्थ - गाथा में यशः कीर्ति और संज्वलन लोभ का दूसरे प्रकार से भी एक स्पर्धक होने के कारण को स्पष्ट किया है कोई एक अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ चार बार मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना किये बिना ही शेष कर्मपुद्गलों की सत्ता को कम करने के लिये होने वाली क्षपितकश क्रिया के द्वारा प्रभूत कर्मपुद्गलों का क्षय करके और दीर्घकाल पर्यन्त संयम का पालन करके मोहनीय का क्षय करने के लिये क्षपकणि पर आरूढ़ हो तो उस क्षपितकर्मांश जीव के यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में जितनी स्थितियां - स्थितिस्थान सत्ता में हों और उन समस्त स्थानों में जो सबसे कम प्रदेशों की सत्ता हो, उसके समूह का पहला जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । उसके बाद वहाँ से आरम्भ कर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर इसी यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । इन समस्त प्रदेश सत्कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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