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________________ ८६ पंचसंग्रह : ५ परन्तु तिर्यंचगतिद्विक के स्थान पर मनुष्यगतिद्विक कहना चाहिये। यहाँ उद्योत का उदय नहीं होता है। (ङ) वैक्रियशरीर करने वाले मनुष्य के भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने पर उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा संयतों के स्वर के स्थान पर उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (च) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए आहारक संयत जीव के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर के मिलाने से अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के स्वर के स्थान पर उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (छ) अतीर्थंकर केवली के तीर्थंकर नाम का उदय नहीं होता है। अतः तीस प्रकृतिक उदयस्थान में से तीर्थंकर नाम को कम करने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा तीर्थंकर केवली जब उच्छ्वास का निरोध करते हैं तब उच्छ वास का उदय नहीं रहता, जिससे उनके तीस प्रकृतिक उदयस्थान में से उच्छवास को कम करने पर उनके उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।। - (ज) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (झ) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए नारक के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में दुःस्वर को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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