________________
बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८
८५ उदयस्थान होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(झ) नरकगतिप्रायोग्य सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास को मिला देने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
८-(क) द्वीन्द्रिय जीवों के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में श्वासोच्छ वासपर्याप्ति से पर्याप्त होने पर उच्छवास प्रकृति को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उद्योत का उदय होने पर उच्छ्वास के बिना उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये। किन्तु वहाँ त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए क्रमशः त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये।
(ख) तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ वास को मिला देने पर उनतीस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास का उदय न होने से उसके स्थान पर उद्योत को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(ग) वैक्रियशरीर को करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों में सुस्वर को मिलाने पर अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों में उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(घ) तिर्यंच पंचेन्द्रिय के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह सामान्य मनुष्य का भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान समझना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org