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पंचसंग्रह : ५
प्रकृत्यात्मक एक सत्तास्थान मात्र एक समय मात्र ही रहने के कारण अवस्थित रूप से घटित नहीं होता है तथा इस कर्म की सम्पूर्ण सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः उसकी सत्ता नहीं होने से अवक्तव्य सत्कर्म सम्भव नहीं है |
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गोत्रकर्म - इसके दो सत्तास्थान होते हैं- दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक | जब तक गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियों की सत्ता हो तब तक तो दो प्रकृतिक सत्तास्थान और तेजस्कायिक, वायुकायिक के भव में जाकर उच्चगोत्र की उवलना कर देने पर नीचगोत्र रूप एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । अथवा अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय में नीचगोत्र का क्षय होने से चरम समय में उच्चगोत्र की सत्ता रूप एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
यदि कोई नीचगोत्र की सत्ता वाला जीव पृथ्वीकाय आदि में आकर उच्चगोत्र का बंध करे तब दो प्रकृति की सत्ता रूप एक भूयस्कार होता है तथा अल्पतर भी जब उच्चगोत्र की उवलना करे तब नीचगोत्र की सत्ता रूप अथवा नीचगोत्र का क्षय करे तब उच्चगोत्र की सत्ता रूप एक ही होता है । अवस्थितसत्कर्म दो हैं । इसका कारण यह है उच्च और नीच इन दोनों प्रकृतियों की और उच्चगोत्र की उवलना करने के बाद केवल नीचगोत्र की सत्ता चिरकाल पर्यन्त सम्भव है तथा अवक्तव्यसत्कर्म उच्चगोत्र की सत्ता नष्ट होने के अनन्तर पुनः वह सत्ता में आती है, जिससे उस एक प्रकृति की अपेक्षा घटित होता है, किन्तु गोत्रकर्म की अपेक्षा घटित नहीं होता है । क्योंकि गोत्रकर्म की सत्ता का नाश होने के अनन्तर पुनः उसकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है ।
आयुकर्म - अब आयुकर्म के सत्तास्थानों और उनमें भूयस्कार आदि सत्कर्म का निर्देश करते हैं । उसके दो सत्कर्मस्थान हैं-दो प्रकृतिक, एक प्रकृतिक । जब तक परभव की आयु का बंध न हो, तब तक भुज्यमान एक आयु की सत्ता होती है और परभव की आयु का
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