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________________ धवधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० १११ उसमें से भय या जुगुप्सा किसी एक को कम करने पर सैंतालीस का अल्पतर सम्भव है | इस प्रकार सभी उत्तरप्रकृतियों के सामान्य से उदयस्थान और उनमें भूयस्कार आदि को जानना चाहिये । अब क्रमशः ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के और सामान्य से सभी प्रकृतियों के सत्तास्थानों का निर्देश करके उनमें भूयस्कार आदि का वर्णन करेंगे। उनमें से पहले प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों व उनमें भूयस्कार आदि का कथन करते हैं । प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थान, भूयस्कार आदि ज्ञानावरण, अन्तराय - इन दोनों कर्मों का पांच पांच प्रकृतिरूप एक ही सत्तास्थान है । इन दोनों कर्मों की पांच-पांच प्रकृतियां होने और उनकी सत्ता ध्रुव होने के अन्य कोई दूसरा अल्पाधिक प्रकृति वाला सत्तास्थान नहीं होता है। इसलिए इन दोनों में भूयस्कारत्व या अल्पतरत्व सम्भव नहीं है तथा इन दोनों कर्मों की समस्त प्रकृतियों की सत्ता का व्यवच्छेद होने पर पुनः उनकी सत्ता संभव नहीं होने से अवक्तव्यसत्ता भी घटित नहीं होती है । अवस्थितसत्ता अवश्य सम्भव है। जिसमें अभव्य के अनादि - अनन्त और भव्य के अनादि- सान्त यह दो भंग सम्भव हैं । वेदनीय- के दो और एक प्रकृतिरूप दो सत्तास्थान हैं । उनमें से अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त दो प्रकृतिरूप और अन्तिम समय में एक प्रकृतिरूप सत्तास्थान होता है। यहाँ एक प्रकृति के सत्तास्थान से दो प्रकृति के सत्तास्थान में नहीं जाने के कारण भूयस्कार तो घटित नहीं होता है, किन्तु दो प्रकृतिक सत्तास्थान से एक प्रकृतिक स्थान में जाना शक्य होने से एक अल्पतर सम्भव है । दो प्रकृति रूप सत्ता अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के अनादि - सान्त, इस प्रकार दो प्रकृत्यात्मक एक अवस्थितसत्कर्म सम्भव है । किन्तु एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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