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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ २११ भूत अध्यवसाय असंख्य लोकाकाश प्रदेश तुल्य-प्रमाण हैं। क्योंकि उन जघन्यादि स्थितियों के असंख्यात विशेष होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायों के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होने के कारण का निर्देश किया है कि 'हीणमज्झिमुक्कोसा' अर्थात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिबंध के हेतुभूत असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय हैं। क्योंकि उन एक-एक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिस्थानों में असंख्याता विशेष हैं और वे विशेष स्थितिबंध में हेतुभूत अध्यवसाय की विचित्रता में देश, काल, रस विभाग के वैचित्र्य द्वारा कारण होते हैं । जिसका आशय यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, अनुभाग आदि अनेक कारणों का आत्मा पर असर होता है और उसके कारण अध्यवसायों की भिन्नता होती है । अनेक जीवों के एक सरीखी स्थिति बांधने पर भी वे जीव एक ही क्षेत्र में, एक ही काल में या एक ही प्रकार के समान संयोगों में अनुभव नहीं करते हैं। किन्तु भिन्न-भिन्न क्षेत्र-कालादि और भिन्न-भिन्न संयोगों में अनुभव करते हैं। इसका कारण भिन्न-भिन्न क्षेत्र, काल और अनुभाग आदि द्वारा निष्पन्न अध्यवसायों की विचित्रता कारण है। इस तरह भिन्न-भिन्न क्षेत्र, काल आदि असंख्य कारण भिन्न-भिन्न अध्यवसायों के होने में कारण हैं । क्षेत्रादि के असंख्य होने से अध्यवसाय भी असंख्य हैं । इन असंख्य अध्यवसायों द्वारा एक सरीखी स्थिति बंधने पर भी एक सरीखे संयोगों में अनुभव नहीं की जाती है। किसी भी एक स्थितिबंध का एक अध्यवसाय रूप एक ही कारण हो तो उस स्थिति को एक जीव जिस सामग्री को प्राप्त कर अनुभव करे उसी सामग्री को प्राप्त कर उस स्थिति को बांधने वाले सभी जीवों को अनुभव करना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं होता है । एक सरीखी स्थिति बांधने वाले अनेक जीवों में से एक जीव उस स्थिति को अमुक क्षेत्र या अमुक काल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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