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पंचसंग्रह : ५ अनुभव करता है, दूसरा जीव उस स्थिति को दूसरे क्षेत्र या काल में अनुभव करता है। इस कारण एक ही स्थितिबंध होने में अनेक अध्यवसाय रूप अनेक कारण हैं। उन अनेक कारणों द्वारा स्थितिबंध एक सरीखा होता है । मात्र उसमें भिन्न-भिन्न संयोगों में अनुभव करने रूप एवं अनेक कारणों द्वारा परिवर्तन होने रूप विचित्रता रही
अथवा जघन्य स्थिति असंख्य समय प्रमाण है। इसी प्रकार प्रत्येक मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति भी असंख्य समय प्रमाण है । ये जघन्य स्थिति समय-समय प्रमाण कम होते जाने से प्रति समय अन्यथाभाव के-भिन्न-भिन्न प्रकार के-भेद को प्राप्त करती है । इसी प्रकार मध्यम और उत्कृष्ट स्थितियां भी समय-समय मात्र कम होने के द्वारा भिन्नता को प्राप्त करती हैं। इस प्रकार उन जघन्यादि स्थितियों में असंख्य विशेष रहे हुए हैं कि जिन विशेषों के कारण भी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय हैं।
इस प्रकार से अध्यवसायस्थान प्ररूपणा का भाव जाना चाहिये । अब क्रम प्राप्त सादि-अनादि प्ररूपणा का निर्देश करते हैं । इस प्ररू. पणा के दो प्रकार हैं-१ मूल प्रकृति विषयक, २ उत्तर प्रकृति विषयक । उनमें से पहले मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि का विचार करते हैं। मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा
सत्तहं अजन्नो चउहा ठिइबंधु मूलपगईणं । सेसा उ साइअधुवा चत्तारि वि आउए एवं ॥५६।।
शब्दार्थ-सत्तह-सात, अजहन्नो-अजघन्य, चउहा-चार प्रकार का, ठिइबंधु-स्थितिबंध, मूलपगईणं-मूल प्रकृतियों का, सेसा-शेष बंध, उऔर, साइअधुवा-सादि और अध्र व, चत्तारि---चारों, वि-भी, आउएआयु के, एवं-- इसी प्रकार के।
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