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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ गाथार्थ-सातों मूल प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिबंध चार प्रकार का है और शेष बंध सादि, अध्र व हैं तथा आयु के चारों ही बंध इसी प्रकार के अर्था। सादि और अध्र व हैं । विशेषार्थ- गाथा में मूलकर्मों के स्थिति के सादित्व आदि चारों बंधप्रकारों का निरूपण किया है कि आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सातों मूलकों का अजघन्य स्थितिबंध चार प्रकार का है-'अजहन्नो चउहा'- सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीयकर्म के सिवाय छह मूलकर्मों का जघन्य स्थितिबंध क्षपकणि में सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के चरम समय में होता है। वह जघन्य बंध चरम समय में मात्र एक समय तक ही होने से सादि है और दूसरे समय में उन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के साथ उस जघन्य बंध का भी विच्छेद होने से सांत है। इस जघन्य स्थितिबंध से अन्य सभी स्थितिबंध अजघन्य है। वह अजघन्य स्थितिबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु वहाँ से पतन होने पर होता है, जिससे सादि है, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनको अनादिकाल से अजघन्य बंध होता आ रहा है, जिससे अनादि है, भव्य के कालान्तर में अजघन्य बंध का विच्छेद सम्भव होने से अध्र व और अभव्य के किसी भी समय विच्छेद सम्भव नहीं होने से ध्र व है। मोहनीय का जघन्य स्थितिबंध क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है। एक समय मात्र होने से वह सादि-सान्त है, उसके सिवाय अन्य शेष समस्त बंध अजघन्य कहलाता है। जो उपशमणि के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में नहीं होता है। किन्तु वहाँ से पतन होने पर होता है, जिससे सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनकी अपेक्षा अनादि और भव्य अभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्र व, ध्रुव जानना चाहिये। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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