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________________ ६२ पंचसंग्रह : ५ बहुत अधिक भूयस्कार हो सकेंगे। परन्तु यह इष्ट नहीं है । अतः अवधि के भेद से भूयस्कार का भेद नहीं है । इसीलिये छह भूयस्कार संभव हैं । सारांश यह है कि नौवें गुणस्थान में एक यश कीर्ति का बंध करके जब कोई जीव वहाँ से च्युत होकर आठवें गुणस्थान में तीस अथवा इकतीस का बांध करता है तो वह पृथक् भूयस्कार नहीं गिना जाता है । क्योंकि उसमें भी तीस अथवा इकतीस का ही बंध करता है और यही बंध पांचवें और छठे भूयस्कारबंधों में भी होता है, जिससे उसे पृथक् नहीं गिना जाता है । इसी कारण छह भूयस्कार माने गये हैं ।" १ दिगम्बर साहित्य में मोहनीय और नामकर्म के भूयस्कार आदि बंधों के वर्णन में अन्तर है । गो. कर्मकाण्ड गा. ४६८ से ४७४ तक और दि. पंचसंग्रह शतक अधि. गा. २४६ से २५५ तक मोहनीयकर्म के भूयस्कार आदि बंधों का वर्णन किया है । उसमें २० भूयस्कार, ११ अल्पतर, ३३ अवस्थित और २ अवक्तव्य बंत्र बतलाये हैं । इसी प्रकार गो. कर्मकाण्ड गा. ५६५ से ५८२ तक तथा दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. २५६ से २६० तक नामकर्म के भूयस्कार आदि बंधों का वर्णन किया है । जिसमें २२ भूयस्कार, २१ अल्पतर, ४६ अवस्थित और ३ अवक्तव्य बंध बतलाये हैं । यहाँ और कर्मकाण्ड आदि के विवेचन में अन्तर पड़ने का कारण यह है कि यहाँ भूयस्कार आदि बंधों का विवेचन केवल गुणस्थानों से उतरने और चढ़ने की अपेक्षा से किया है । किन्तु कर्मकाण्ड आदि में उक्त दृष्टि के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखा गया है कि ऊपर चढ़ते समय जीव किस-किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में जा सकता है और उतरते समय किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में आ सकता है तथा जितने --> www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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