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________________ विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ ६३ 1 अब नामकर्म के अवक्तव्यबंध बतलाते हैं - 'नाममि एग गुणतीस तीस अव्वत्ता' अर्थात् नामकर्म में एक, उनतीस और तीस प्रकृति के बंधरूप तीन अवक्तव्यबंध होते हैं । वे इस प्रकार समझना चाहिएजब उपशान्तमोहगुणस्थान का काल पूर्ण कर च्युत होने पर दसवें गुणस्थान में आकर पहले समय में एक यशःकीर्ति का बंध करता है तब एकप्रकृतिक बंधरूप पहला अवक्तव्यबंध होता है तथा भवक्षय होने पर च्युत होकर देवरूप से उत्पन्न होता है तब वहाँ पहले समय में मनुष्यगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर उनतीस प्रकृति रूप दूसरा अवक्तव्यबंध और कोई जीव तीर्थंकर प्रकृति का निकाचित बंधकर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरणको प्राप्त हो देव रूप से उत्पन्न होता है तब वहाँ पहले समय में तीर्थंकर नामकर्म सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने से तीसप्रकृतिक बंधरूप तीसरा अवक्तव्यबंध होता है । इसीलिए नामकर्म के बंधस्थानों में तीन अवक्तव्यबंध माने गये हैं 1 तथा नाम कर्म के बंधस्थान आठ होने से अवस्थितबंध आठ जानना चाहिये । इस प्रकार से दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों के भूयस्कार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थित बंधों का विचार करने के बाद अव शेष रहे वेदनीय आदि पांच कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधों को बतलाते हैं। इन कर्मों के भूयस्कार प्रकृतिक स्थान को बांधकर जितने प्रकृतिक स्थानों का बंत्र संभव है और उन स्थानों के जितने भंग हो सकते हैं उन सब की अपेक्षा से भूयस्कार आदि को बतलाया है । इसके सिवाय मरने की अपेक्षा से भी भूयस्कार आदि गिनाये हैं । संक्षिप्त सारांश परिशिष्ट में देखिये । १ उवरदबंधो हेट्ठा एक्कं देवेसु तीसमुगुनीसा । Jain Education International - दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. २६० www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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