________________
६४
पंचसंग्रह : ५
और अल्पतर बंध तो होते नहीं हैं और अब रहे अवस्थित एवं अवक्तव्य बंध, सो उनमें भी इनका एक-एक बंधस्थान होने से एक-एक अवस्थितबंध जानना चाहिए किन्तु अवक्तव्यगंध इस प्रकार हैं
'एक्क्को तइयवज्जाणं' - अर्थात् तीसरे वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण, अन्तराय, आयु और गोत्र इन चार कर्मों में एक-एक अवक्तव्यबंध होता है । उनमें से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म में उपशान्तमोहगुणस्थान से अद्धाक्षय या भवक्षय से गिरकर पांच-पांच प्रकृतियों का बंध करने पर पहले समय में पांच पांच प्रकृतिक बंध रूप एक-एक अवक्तव्यबंध होता है तथा उपशान्तमोहगुणस्थान से अद्धाक्षय या भवक्षय से गिरने पर उच्चगोत्र का बंध करने पर पहले समय में उच्चगोत्र का बंध रूप गोत्रकर्म में एक अवक्तव्य बंध होता है । आयु के बंध के प्रारम्भ में चार आयु में से किसी भी एक आयु का बंध करने पर पहले समय में उस एक आयु का बंध रूप अवक्तव्यबंध होता है । लेकिन वेदनीयकर्म में अवक्तव्यबंध सर्वथा घटित नहीं होता है । क्योंकि वेदनीयकर्म का गंधविच्छेद होने के बाद पुनः बंध होता नहीं है । वेदनीय कर्म का बंध-विच्छेद अयोगि अवस्था में होता है और वहाँ से प्रतिपात होता नहीं कि जिससे पुनः बंध का प्रारम्भ सम्भव हो । इस प्रकार सर्वथा बध का विच्छेद होने के बाद बंध का प्रारम्भ नहीं होने से वेदनीयकर्म में अवक्तव्य सम्भव नहीं होने से उसका निषेध किया है । वेदनीयकर्म में तो मात्र अवस्थितबंध ही घटित होता है ।
इन ज्ञानावरण आदि कर्मों के अवस्थितबंध में से ज्ञानावरण, अन्तराय और गोत्र कर्म का मूल कर्म - आश्रित अवस्थितबंध अभव्य की अपेक्षा अनादि - अनन्त, और भव्य की उपेक्षा अनादि-सांत एवं सादि-सांत है | वेदनीयकर्म का भी अवस्थितबंध इसी प्रकार अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त और भव्य की अपेक्षा अनादि-सांत है और आयुकर्म का अवस्थितबंध मात्र अन्तर्मुहूर्त ही है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org