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________________ ४५४ पंचसंग्रह : ५ प्रकृतियों को बांध कर तेज और वायुकाय में उत्पन्न हो और वहाँ चिरोवलना प्रारम्भ की। तब उवलना करते करते स्वरूप को अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय स्थिति शेष रहे, उस समय इन तीन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा जो क्षतिकर्मांश जीव पूर्व में उपशमश्र णि को न करके क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो उस क्षपितकर्मांश जीव के यथाप्रवृत्तकरणअप्रमत्तगुणस्थान के चरम समय में संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनाम की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । यदि मोह का सर्वथा उपशम करे तो गुणसंक्रम द्वारा अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का उक्त प्रकृतियों में सक्रम होने से इनको सत्ता में अधिक दलिक प्राप्त होता है और वैसा होने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित नहीं हो सकती है । जघन्य प्रदेशसत्ता के विषय में उसका कुछ प्रयोजन नहीं होने से उपशमश्र णि किये बिना क्षपकश्र णि पर आरूढ़ होने का कहा है तथा अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरम समय में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । क्योंकि अपूर्वकरण में गुणसंक्रम प्रारम्भ होने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित नहीं हो सकती है । तथा 'मिच्छत्तगए आहारगस्स' अर्थात् मिथ्यात्व में गये हुए जीव के आहार सप्तक की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि कोई अप्रमत्त जीव अल्पकाल पर्यन्त आहारकसप्तक का बंध करके मिथ्यात्व में जाये और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में उसकी उवलना करे और उद्वलना करते हुए चरम समय में स्वरूप की अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे, तब आहारकसप्तक की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा 'सेसाणि नियगते' अर्थात् शेष प्रकृतियों की उस उस प्रकृति के क्षय के समय में क्षपितकर्मांश जीव के जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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