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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६, १७०
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इस प्रकार से संक्रांत करते हुए जब स्वरूप की अपेक्षा समय प्रमाण स्थिति और सामान्यतः कर्मरूपता की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब उन दोनों को (सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की) जघन्य प्रदेशसत्ता होती है।1
नरकद्विक, देवद्विक और वैक्रियसप्तक रूप ग्यारह प्रकृतियों की किसी एकेन्द्रिय जीव ने क्षपितकर्माश होने से उद्वलना की और उसके बाद संज्ञी तिर्यंच में आकर अन्तर्मुहुर्त काल पर्यन्त बध किया और बंधकर सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में तेतीस सागरोपम की आयु सहित उत्पन्न हो वहाँ विपाकोदय एवं संक्रम द्वारा यथायोग्य रीति से अनुभव करे और उसके बाद उस नरक से निकलकर संज्ञी तिर्यंच में उत्पन्न हो और वहाँ तथाप्रकार के अध्यवसाय के अभाव में इन ग्यारह प्रकृतियों का बंध किये बिना एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वह एकेन्द्रिय जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा होने वाली उद्वलना द्वारा उद्वलना करना प्रारम्भ करे और उद्वलना करते-करते जब स्वरूप की अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब इन ग्यारह प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा
क्षपितकर्माश कोई सूक्ष्मत्रस-तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवमनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उद्वलना करके वहाँ से सूक्ष्म एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादि में उत्पन्न हो और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पुनः इन तीन
१ इन दोनों की जघन्य प्रदेशसत्ता इसी प्रकार से घटित हो सकती है।
यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व का उपार्जन करते हुए भी उन दोनों का क्षय होता है, परन्तु वहाँ अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय होता है एवं गुणश्रेणि होने से समयमात्र स्थिति शेष रहे तब जघन्य प्रदेशसत्ता नहीं हो सकती है । इसलिये मिथ्यात्वगुणस्थान में ही उद्वलना होने से जघन्य प्रदेशसत्ता सम्भव है।
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