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________________ ४५२ पंचसंग्रह : ५ करके अंत में उसका क्षय करने के लिये प्रयत्नशील हो और उस अनंतानुबंधिचतुष्क का क्षय करते-करते जब समस्त खंडों का क्षय हो और उदयावलिका को स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत करे तब स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र स्थिति और सामान्यतः कर्मरूपता की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब अनन्तानुबंधिचतुष्क की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। ____ कोई क्षपितकर्मांश जीव एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर वहाँ से गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान में जाये और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा होने वाली मंद उद्वलना से सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना प्रारम्भ करे और उद्वलना करने वाला वह जीव उन दोनों के दलिकों को मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रांत करे तो इस प्रकार संक्रांत करते-करते उदयावलिका के ऊपर के अन्तिम खण्ड के समस्त दलिकों को अन्तिम समय में सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित कर डालता है और उदयावलिका के दलिक को स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करता है। १ यहाँ जघन्य प्रदेशसत्ता का कथन किया जा रहा है, अतएव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर अनन्तानुबधि का मात्र अन्तमुहूर्त पर्यन्त बंध कर सम्यक्त्व प्राप्त करने और उसका एक सौ बत्तीस सागरोपम पालन करने का निर्देश किया है । जिससे उतने काल में संक्रमकरण और स्तिबुकसंक्रम द्वारा बहुत सी सत्ता के कम होते जाने और अंत में उद्वलना करने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित होती है।। __ यहाँ जो दो समय प्रमाण स्थिति कही है, वह उदयावलिका का स्वरूप सत्ता की अपेक्षा रहा हुआ चरमसमय जो स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्य रूप हो जाता है, उसे गिनते हुए कहा है। क्योंकि स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत स्थिति संक्रमकरण द्वारा संक्रमित स्थिति की तरह सर्वथा पररूप को प्राप्त नहीं करती है कुछ स्वरूप से रहती है। जिससे वह समय भी संक्रम्यमाण प्रकृति का गिना जाता है । इसलिये दो समय की स्थिति कही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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