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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६, १७० ४५१ और शेष प्रकृतियों की अपने-अपने क्षय के समय में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में उद्वलनयोग्य प्रकृतियों, संज्वलन लोभ एवं यशःकीर्ति की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का पृथक्पृथक निर्देश करने के बाद शेष रही प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामियों के लिये सामान्य नियम बतलाया है। ___ सर्वप्रथम उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के लिये कहा है कि अल्पकाल पर्यन्त बंध द्वारा उपचित-संचित की हुई जिन कर्मप्रकृतियों की उद्वलना होती है ऐसी आहारकसप्तक, वैक्रियसप्तक, देवद्विक, मनुष्यद्विक, नरकद्विक, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र और अनन्तानुबंधिचतुष्क रूप सत्ताईस प्रकृतियों की स्व और पर दोनों की अपेक्षा जब दो समय स्थिति और स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र एक स्थिति शेष रहे तब उनकी जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये अल्पकाल पर्यन्त बंध द्वारा पुष्ट की गई अनन्तानुबधिकषायचतुष्क की चिरकाल पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर उद्वलना करते हुए अत में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । जिसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि किसी क्षपितकर्मांश जीव ने सम्यग्दृष्टि होने पर अनन्तानुबंधिचतुष्क को उद्वलना करके सत्ता में से निर्मूल कर दिया। तत्पश्चात् वही जीव सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान में जाकर मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त अनन्तानुबंधिचतुष्क को बांधकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे और उस सम्यक्त्व का दो बार छियासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त पालन १ अनन्तानुबंधिचतुष्क की उद्वलना करते हुए कहने का कारण यह है कि सुदीर्घकाल से बंधे हुए होने के कारण प्रदेशों की सत्ता अधिक होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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