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________________ ४५० पंचसंग्रह : ५ जघन्यतम प्रदेशों की सत्ता पाई जाती है। फिर भी कुछ प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व के सम्बन्ध में जो विशेष वक्तव्य है, उसका विचार आगे किया जायेगा। इस प्रकार सामान्यरूपेण जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामी का निर्देश करने के बाद अब जिन प्रकृतियों की जघन्य सत्ता के बारे में विशेषता है, उसका विचार करते हैं उव्वलमाणीणेगठिई उव्वलए जया दुसाम इगा। . थोवद्धमज्जियाणं चिरकालं पालिया अंते ॥१६६।। अंतिमलोभजसाणं असेढिगाहापवत्त अतंमि । मिच्छत्तगए आहारगस्स सेसाणि नियगते ॥१७०।। शब्दार्थ-उवलमाणीणेगठिई-उद्वलनयोग्य प्रकृतियों की एक स्थिति, उव्वलए-उद्वलना होने पर, जया-जब, दुसामइगा-द्विसामयिक, दो समय प्रमाण, थोवद्धमज्जियाणं-स्तोक बंधाद्धा द्वारा अजित-पुष्ट हुई, चिरकालंचिरकाल, पालिया-परिपालन करने के, अंते-अंत में । अंतिमलोमजसाणं--संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति की, असे ढिग--उपगमश्रेणि को किये बिना, अहापवत्त अंतमि-यथाप्रवृत्तकरण के अंत में, मिच्छ तगए -मिथ्यात्व में गए हुए के, आहारगस्स-आहारकसप्तक की, सेसाणि- शेष की, नियगंते- अपने-अपने अन्त में। गाथार्थ-स्तोक बंधाद्धा द्वारा अजित-पुष्ट हुई उद्वलन योग्य प्रकृतियों की उद्वलना होने पर जो दो समय प्रमाण एक स्थिति होती है. वह उनकी जघन्य प्रदेशसत्ता है और वह चिरकाल पर्यन्त सम्यक्त्व का परिपालन करने के बाद अंत में प्राप्त होती है। उपशमश्रेणि को किये बिना क्षपकश्रेणि करने पर यथाप्रवृत्तकरण के अंत समय में संज्वलन लोभ और यश कीर्ति की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। आहारकसप्तक की मिथ्यात्व में गये हुए के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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