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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ ३६१ प्रदेश और कालापेक्षा यहाँ गुणश्रेणियों का जो स्वरूप बताय है, उसका आशय यह है प्रदेशापेक्षा गुणश्रेणियों का स्वरूप इसलिये बतलाया है कि गुणश्रेणि शीर्ष में रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा कालापेक्षा का यह आशय लेना चाहिये कि सम्यक्त्व के निमित्त से जितने अन्तर्मुहूर्त में दलरचना होती है, उससे संख्यातवें भाग के अन्तर्मुहूर्त में देश विरति के निमित्त से होने वाली गुणश्र ेणि में दलरचना होती है और उत्तरोत्तर असंख्यात गुण विशुद्ध होने से दलिक असंख्यातगुण अधिक स्थापित किये जातेहैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक्त्व के निमित्त से जो गुणश्रेणिहुई वह बृहद् अन्तर्मुहूर्त में हुई और दलिक कम स्थापित किये गये तथा देशविर तिनिमित्तक जो गुणश्रेणि हुई वह संख्यातगुणहीन अन्तर्मुहूर्त में हुई किन्तु दलिक असंख्यातगुण अधिक स्थापित किये गये । ऐसा होने से सम्यक्त्व की गुणश्र ेणि द्वारा जितने काल में जितने दलिक दूर होते हैं, उससे संख्यातवें भाग काल में असंख्यातगुण अधिक दलिक देशविरति गुणश्रेणि में दूर होते हैं । इसी प्रकार उत्तरोत्तर की गुणश्रेणियों के दलिकों एवं समय के लिए समझना चाहिए कि समय कम होता जाता है, किन्तु दलिकसंख्या में वृद्धि होती जाती है । इस प्रकार से गुण णियों के स्वरूप को बतलाने के बाद अब गतियों में संभव गुणश्र णियों का निर्देश करते हैं । गतियों में संभव गुणश्रेणियां झत्ति गुणाओ पडिए मिच्छत्तगयंमि आइमा तिन्नि । लब्भंति न सेसाओ जं झीणासु असुभमरणं ॥ १०६ ॥ शब्दार्थ - झत्ति - शीघ्र, गुणाओ - ( सम्यक्त्व) गुण से, पडिए - गिरकर, मिच्छत्तगय - मिथ्यात्व में गए हुए के, आइमा तिन्नि – आदि की तीन, लब्भति -प्राप्त होती हैं, न- नहीं, सेसाओ - शेष, जं क्योंकि, झोणासु य होने के साथ, असुभमरणं - अशुभ मरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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