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________________ [ १४ ] किन्तु यह बात स्पष्ट है कि आपने संगठन और एकता के साथ कभी सौदेबाजी नही की । स्वयं सब कुछ होते हुए भी सदा ही पदमोह से दूर रहे | श्रमणसंघ का पदवी - रहित नेतृत्व आपश्री ने किया और जब सभी का पद ग्रहण के लिए आग्रह हुआ तो आपश्री ने उस नेतृत्व चादर को अपने हाथों से आचार्य सम्राट ( उस समय उपाचार्य) श्री आनन्द ऋषिजी महाराज को ओढ़ा दी । यह है आपश्री की त्याग व निस्पृहता की वृत्ति । कठोर सत्य सदा कटु होता है । आपश्री प्रारम्भ से ही निर्भीकवक्ता, स्पष्ट चिन्तक और स्पष्टवादी रहे हैं । सत्य और नियम के साथ आपने कभी समझौता नहीं किया, भले ही वर्षों से साथ रहे अपने कहलाने वाले साथी भी साथ छोड़कर चले गये, पर आपने सदा ही संगटन और सत्य का पक्ष लिया । एकता के लिए आपश्री के अगणित बलिदान श्रमण के गौरव को युग-युग तक बढ़ाते रहेंगे । संगठन के बाद आपश्री की अभिरुचि काव्य, साहित्य, शिक्षा ओर सेवा के क्षेत्र में बढ़ती रही है। आपश्री की बहुमुखी प्रतिभा से प्रसून सैकड़ों काव्य, हजारों पद छन्द आज सरस्वती के श्रृंगार बने हुए हैं । जैन राम यशोरसायन, जैन पांडव यशोरसायन जैसे महाकाव्यों की रचना हजारों कवित्त, स्तवन की सर्जना आपकी काव्यप्रतिभा के बेजोड़ उदाहरण हैं । आपश्री की आशुकवि रत्न की पदवी स्वयं में सार्थक है। कर्मग्रन्थ (छह भाग) जैसे विशाल गुरु गम्भीर ग्रन्थ पर आपश्री के निदेशन में व्याख्या, विवेचन और प्रकाशन हुआ जो स्वयं में ही एक अनूठा कार्य है । आज जैनदर्वन और कर्मसिद्धान्त के सैकड़ों अध्येता उनसे लाभ उठा रहे हैं आपश्री के साद्धिघ्य में ही पंचसंग्रह ( दस भाग) जैसे विशालकाय कर्म सिद्धान्त के अतीव गहन ग्रन्थ का सम्पादन, विवेचन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है, जो वर्तमान में आपश्री की अनुपस्थिति में आपश्री के सुयोग्य शिष्य श्री सुकनमुनि जी के निर्देशन में सम्पन्न हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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