SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ अतः बाईस का बंध करके इक्कीस का बंधरूप अल्पतरबंध संभव न होने से अल्पतरबंध आठ ही होते हैं। ____ मोहनीयकर्म में एक और सत्रह प्रकृतिक बंधरूप दो अवक्तव्यबंध होते हैं-इग सत्तरस य मोहे। जो इस प्रकार समझना चाहिये कि ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान में मोहनीयकर्म का बंध न करके जब कोई जीव उपशान्तमोहगुणस्थान से उसका काल पूर्ण करके क्रमशः च्युत होकर नौवें गुणस्थान में आकर संज्वलन लोभ रूप एक प्रकृति का बंध करता है तब एकप्रकृतिक बंधरूप अवक्तव्यबंध होता है। यदि ग्यारहवें गुणस्थान में भवक्षय हो जाने के कारण मरण करके कोई जीव देवों में जन्म लेता है तब पहले ही समय में अविरतसम्यग्दृष्टि होता है और वहाँ अविरतसम्यग्दृष्टि निमित्तक सत्रह प्रकृतियों का बंध होने से सत्रहप्रकृतिक बंधरूप दूसरा अवक्तव्यबंध होता है। अतः मोहनीयकर्म में दो अवक्तव्यबंध तथा दस बंधस्थान होने से दस अवस्थितबंध जानना चाहिये। इस प्रकार मोहनीयकर्म के दस बंधस्थानों के नौ भूयस्कार, आठ अल्पतर, दो अवक्तव्य और दस अवस्थित बंध होते हैं । नामकर्म- इसके आठ बंधस्थानों में छह भूयस्कार, सात अल्पतर और तीन अवक्तव्य बंध होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी मोहनीयकर्म के दो अवक्तव्यबंध माने हैंउवरदबंधो हेट्ठा एक्कं सत्तरस सुरेसु अवत्तग। -दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा २५५ २ नामकर्म के प्रत्येक बंधस्थान का काल प्रायः अन्तमुहूर्त है और प्रायः कहने का कारण है कि युगलिया तीन पत्योपम पर्यन्त देवगति-योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy