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पंचसंग्रह : ५
इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार किया गया है
आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध छह गुणस्थानों को उल्लंघ सातवें गुणमोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नवम गुण
स्थान में रहने वाला करता है। स्थानवर्ती करता है ।
दि. पंचसंग्रह के टीकाकार ने इस गाथा की टीका में केवल 'मिश्रगुणं विना' इतने अंश को छोड़कर शेष अर्थ में गो. कर्मकाण्ड की टीका का ही अनुसरण किया है । यद्यपि 'मिश्रगुणं विना' इतना अंश उन्होंने उक्त गाथा के अन्त में दी गई वृत्ति 'मिस्सवज्जेसु पढम गुणेसु' के सामने रहने से दिया है । तथापि उक्त दोनों टीकाओं में किया गया अर्थ न तो मूल गाथा के शब्दों से ही निकलता है और न महाबंध के प्रदेशबन्धगत स्वामित्व अनुयोगद्वार से ही उसका समर्थन होता है । महाबन्ध में आयु और मोह कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व का निरूपण इस प्रकार किया है
'मोहस्स उक्कस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिदियस्स सणिस्स मिच्छादिट्टिस्स वा सम्मादिट्ठिस्स वा सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्स सत्तविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सए पदेसबंधे वट्टमाणस्स । आउगस्स उक्कस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिट्टिस्स वा सम्मादिट्टिस्स वा सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयस्स अट्ठविह बन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स ।'
- महाबंध पु. ६, पृ. १४
इस उद्धरण में आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध न केवल अप्रमत्त के बताया है और न मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध केवल अनिवृत्तिकरण के बताया है । किन्तु कहा है कि आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध आठों कर्मों के बांध वाले पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव के होता है तथा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बंध करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है ।
महाबन्ध के इस कथन से दि. पंचसंग्रह की मूल गाथा द्वारा प्रतिपादित अर्थ का ही समर्थन होता है ।
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