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परिशिष्ट ६ आयु और मोहनीय कर्म के उत्कष्ट प्रदेशबंध
स्वामित्व विषयक विशेष वक्तव्य
पंचसंग्रहकार एवं शिवशर्मसूरि ने शतक अधिकार में आयु एवं मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व के लिये कहा है कि आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी पांच गुणस्थान वाले और मोहनीय कर्म के सात गुण स्थान वाले जीव हैआउक्कस्स पदेसस्स पंच मोहस्ससत्त ठाणाणि ।
--शतक प्रकरण गा. ६३ लेकिन दिगम्बर पंचसंग्रह शतक प्रकरण गाथा ५०२ में उक्त कथन के बदले यह कहा है -
आउक्कस पदेसस्स छच्चमोहस्स नव दु ठाणाणि । यही गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड में गाथा २११ के रूप में पाई जाती है। लेकिन इन दोनों की संस्कृत टीकाओं के अर्थ में भिन्नता है ।
दि. पंचसंग्रह की टीका में जो अर्थ किया गया है, उसका सारांश इस प्रकार है ---
आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिश्रगुण स्थान को छोड़कर प्रारम्भ के छह गुणस्थानों में होता है तथा मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध प्रारम्भ के नौ गुणस्थानों में होता है।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस गाथा की जो २११वीं संख्या के रूप में पाई जाती है, संस्कृत टीका का अंश इस प्रकार है
'आयुष उत्कृष्टप्रदेशं षड्गुणस्थानान्यतीत्य अप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति ।। मोहस्स तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्य अनिवृत्तिकरणो बध्नाति ।
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