SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 606
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ६ ५७ आ. अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह से भी ऊपर किये गये अर्थ की पुष्टि होती है उत्कृष्टो जायते बन्धः षटसु मिश्रं विनाऽऽयुषः । प्रदेशाख्यो गुणस्थाननवके मोहकर्मणः ।। सं. पंचसंग्रह ४/२५१ दि. पंचसंग्रह के संस्कृत टीकाकार सुमतिकीति के सामने अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह के होते हुए और अनेक स्थानों पर उसके उद्धरण देते हुए भी इस स्थल पर उसका अनुसरण न करके गो. कर्मकाण्ड की टीका का अनुसरण क्यों किया ? यह बात विचारणीय है । श्वेताम्बर साहित्य में इस प्रदेशबंधस्वामित्व के लिए जिस रूप में यह गाथा दी है उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । जिसका अर्थ करते हुए चूर्णिकार ने उक्त दोनों पाठभेदों की सूचना की है। उक्त अंश इस प्रकार है 'आउक्कस्स पएस्स पंच त्ति' मिच्छद्दिट्ठि असंजतादि जाव अप्पमत्तसंजओ एतेसु पंचसु वि आउगस्स उक्कोसो पदेशबंधो लब्भइ । कहं ? सव्वत्थ उक्कोसो जोगो लब्भइ त्ति काउं । अन्ने पढंति—'आउक्कोसस्स पदेसस्स छत्ति ।'........ 'मोहस्स सत्तठाणाणि' त्ति सासण-सम्मामिच्छद्दिट्ठिवज्जा मोहणिज्जबंधका सत्तविहबंधकाले सव्वेसि उक्कोसपदेसबंधं बंधंति । कहं ? भन्नइ-सव्वे सु वि उक्कोसो जोगो लब्भति त्ति । अन्ने पढंति --- 'मोहस्स णव उ ठाणाणि' त्ति सासणसम्मामिछेहिं सह ।' ___उक्त पाठभेदों के रहते हुए भी चूणि में किये गये अर्थ से न पंचसंग्रह की संस्कृत टीका के अर्थ का समर्थन होता है और न गो. कर्मकाण्ड की संस्कृत टीका द्वारा किये गये अर्थ का समर्थन होता है। इस अर्थ को सयुक्तिक कैसे बनाया जाये और गुणस्थानापेक्षा मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का स्पष्टीकरण कैसे हो ? विद्वज्जन समाधान करने की कृपा करें। -DA Jain Education International ANARIA For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy