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________________ परिशिष्ट : २ उदीरणा विषयक स्पष्टीकरण यथाकालप्राप्त कर्म-परमाणुओं के अनुभव करने को उदय और अकाल. प्राप्त अर्थात् उदयावलिका से बाहर स्थित कर्म-परमाणुओं को सकषाय या अकषाय योग परिणतिविशेष से आकृष्ट करके उदयावलिका में लाकर उदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओं के साथ अनुभव करने को उदीरणा कहते हैं । जो कर्मस्कन्ध अपकर्षण आदि प्रयोग के बिना स्थितिक्षय को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं. उन कर्मस्कन्धों की 'उदय' और जो महान स्थिति और अनुभागों में अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षण करके फल देने वाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कन्धों की 'उदीरणा' संज्ञा है । · फलानुभव की दृष्टि से स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणा में कोई विशेषता नहीं है । लेकिन इन दोनों में विशेषता है तो केवल कालप्राप्त और अकालप्राप्त परमाणुओं की। उदय में तो कालप्राप्त कर्म-परमाणुओं का और उदीरणा में अकालप्राप्त कर्म-परमाणुओं का अनुभव किया जाता है । ऐसी व्यवस्था होने पर भी सामान्य नियम यह है कि उदयप्राप्त कर्मपरमाणुओं/प्रकृतियों की उदीरणा होती है और साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उदयावलिका में प्रवेश किये हुए निषकों की उदीरणा नहीं होती है। ___कर्मदलिकों की उदीरणा होने का परिणाम यह होता है कि दीर्घकाल के बाद उदय आने योग्य निषेकों का अपकर्षण करके अल्प स्थिति वाले अधस्तन निषेकों में या उदयावलिका में देकर उदयमुख रूप से अनुभव कर लेने पर वे कर्मस्कन्ध कर्मरूपता को छोड़कर अन्य पुद्गल रूप से परिणमित हो जाते हैं। ___ कर्मविचार के प्रसंग में सामान्य से १२२ प्रकृतियां उदय और उदीरणा योग्य मानी जाती हैं । लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि विस्तार से १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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