SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ५ पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सातवें गुणस्थान में जाने पर नौ का बंध करता है । अतः वहाँ २४१=२ अल्पतर होते हैं । छठे गुणस्थान में भी दो अल्पतर होते हैं। क्योंकि छठे से नीचे के गुणस्थानों में आने पर भूयस्कारबंध ही होता है । किन्तु ऊपर सातवें गुणस्थान में जाने पर दो अल्पतर बंध होते हैं। यद्यपि छठे और सातवें गुणस्थान में नौ-नौ प्रकृतियों का ही बंध होता है । किन्तु छठे के नौ प्रकृतिक स्थान के दो भंग होते है, क्योंकि वहाँ दोनों युगल का बंध सम्भव है जबकि सातवें के नौ प्रकृतिक बंधस्थान का एक ही भंग होता है । क्योंकि वहाँ एक ही युगल का बंध होता है । अतः प्रकृतियों की संख्या बराबर होने पर भी भंगों की हीनाधिकता के कारण २४१=२ अल्पतरबंध माने गये हैं। सातवें गुणस्थान में एक भी अल्पतर नहीं होता। क्योंकि जब जीव सातवें से आठवें गुणस्थान में जाता है तो वहाँ भी नौ ही प्रकृतियों का बंध करता । अतः अल्पतर सम्भव नहीं । आठवें गुणस्थान में नौ का बंध करके नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करने पर १४१=१ ही अल्पतर होता है । नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करके चार का बंध करने पर एक, चार का बन्ध करके तीन का बन्ध करने पर एक, तीन का बन्ध करके दो का बन्ध करने पर एक और दो का बन्ध करके एक का बन्ध करने पर एक, इस प्रकार चार अल्पतरबन्ध होते हैं। उपर्युक्त सभी अल्पतरों की संख्या का कुल योग (३०+६+२+२+ १+४=४५) होने से पैंतालीस अल्पतर होते हैं । भंगों की अपेक्षा तीन अवक्तव्यबन्ध इस प्रकार हैं दसवें गुणस्थान से उतर कर जीव जब नौवें गुणस्थान में आता है तब प्रथम समय में संज्वलन लोभ का बन्ध करता है । इस अपेक्षा से एक तथा उसी गुणस्थान में मर कर देव असंयत हुआ तब दो अवक्तव्यबन्ध करता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy