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विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२
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और बारह का सत्तास्थान अयोगिकेवली के चरम समय में तथा चौरानवे और पंचानवे का सत्तास्थान क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में होता है । जिससे ये चार सत्तास्थान एक समय प्रमाण के ही होने से अवस्थित रूप से सम्भव नहीं हैं। जिसमें चवालीस अवस्थितसत्कर्मस्थान होते हैं ।
अल्पतरसत्कर्मस्थान सैंतालीस हैं । जो पहले सयोगिकेवलीगुणस्थान के सत्तास्थानों में घातिकर्म की प्रकृतियों का क्रमशः प्रक्षेप करते हुए एक सौ छियालीस तक के सत्तास्थान कहे गये हैं, उनमें से पश्चानुपूर्वी से प्रकृतियों को कम करने पर संतालीस होते हैं ।
भूयस्कार सत्रह हैं । ये भूयस्कार तेज और वायुकाय में एक सौ सत्ताईस के सत्तास्थान से आरम्भ कर आगे के सत्तास्थानों में सभव हैं। क्योंकि इससे पहले के सत्तास्थान क्षपकश्र णि में होने से और वहाँ से पतन न होने के कारण उनमें भूयस्कार संभव नहीं हैं तथा एक सौ तीस व एक सौ सत्ताईस के सत्तास्थान अल्पतर रूप में प्राप्त होने से वे भी भूयस्कार रूप में संभव नहीं होने से भूयस्कार सत्रह माने जाते हैं। सारांश यह हुआ कि एक सौ अट्ठाईस से एक सौ इकतीस तक के चार और एक सौ चौंतीस से एक सौ छियालीस तक के तेरह इस प्रकार सत्रह सत्तास्थान भूयस्कार रूप में प्राप्त होते हैं । संक्षेप में जिनका विवरण इस प्रकार है
तेज और वायुकाय में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उवलना करने के पश्चात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय छब्बीस, आयु एक, गोत्र एक, अन्तरायपंचक और नामकर्म की अठहत्तर इस प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता होती हैं और आयु का बंध करने पर एक सौ अट्ठाईस का सत्तास्थान होता है । एक सौ सत्ताईस की सत्तावाले पृथ्वीकायिक आदि जीव मनुष्यद्विक का बंध करें तब एक सौ उनतीस का उच्चगोत्र अथवा आयु का बंध होने
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