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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४४
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एकेन्द्रियजाति, सेवार्तसंहननन, आतप और स्थावरनामकर्म, इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उस प्रकृति का जब उदय न हो तब बन्धती है।
कदाचित् यह कहा जाये कि इन प्रकृतियों का उदय न हो तब बन्ध के द्वारा उत्कृष्ट स्थिति कैसे प्राप्त हो सकती है ? तो इसका उत्तर यह है- उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जव उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम हों तब होता है। वैसे संक्लिष्ट परिणाम हों तब पांच निद्राओं में से किसी भी निद्रा का उदय होता ही नहीं है तथा नरकद्विक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तिर्यच या मनुष्य करता है, किन्तु उनके नरकद्विक का उदय नहीं होता है और शेष रही तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथायोग्य रीति से देव या नारक करते हैं, किन्तु उनके इन तेरह प्रकृतियों में से एक भी प्रकृति का उदय नहीं होता है। इसीलिए ये बीस प्रकृतियां अनुदयबन्धोत्कृष्ट प्रकृति कहलाती हैं। - इन अनुदयबंधोत्कृष्ट बीस प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध, वह एक समय न्यून उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है-'तं पुण समये णूणं अणुदयउक्कोसबंधीणं' ! जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार
___ इन प्रकृतियों का जब उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, तब यद्यपि अबाधाकाल में पूर्वबद्ध दलिक कि जिनका अबाधाकाल व्यतीत हो गया है, सत्ता में होते हुए भी जिस समय उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, तो उस उदय प्राप्त प्रथम स्थिति को उदयवती स्वजातीय प्रकृति में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत किया जाता है । इसलिये समय मात्र उस प्रथम स्थिति से न्यून जो सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, वह उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि उदय होने पर बंधोत्कृष्ट प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध, वहीं पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है और अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों की जो एक समय न्यून उत्कृष्ट
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