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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ ३२५ सेसाणंतमुहुत्त समया तित्थाउगाण अंतमुह ॥ बंधो जहन्नओ वि हु भंगतिगं निच्चबंधीणं ॥६६॥ शब्दार्थ-सेसाणंतमुहुत्त-शेष प्रकृतियों का अंतर्मुहूर्त, समयासमय, तिथ्याउगाण-तीर्थकरनाम और आयुकर्म की प्रकृतियों का, अंतमुहूअन्तमुहूर्त, बंधो-बंध, जहन्नओ वि-जघन्य से भी, हु-निश्चित रूप से ही, भंगतिगं-तीन भंग, निच्चबंधीण-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के । ___ गाथार्थ-शेष प्रकृतियों का एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तथा जघन्य से भी तीर्थंकरनाम एवं आयुचतुष्क का अन्तमुहूर्त ही बंध होता है और ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के तीन भंग होते हैं। विशेषार्थ-पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों का निरंतर बंधकाल बतलाते हुए गाथा में ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंधकाल के भंगों का निर्देश किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्व में जिन प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल कहा है, उनके सिवाय प्रथम संस्थान और संहनन को छोड़कर शेष संस्थानपंचक, संहननपंचक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावरदशक, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकद्विक, आहारकद्विक, आतप, उद्योत, स्त्रीवेद, नपुसकवेद, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति असातावेदनीय और अप्रशस्तविहायोगति इन इकतालीस प्रकृतियों का जघन्य से समयमात्र बंधकाल है और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त बंधती हैं । क्योंकि ये प्रकृतियां अध्र वबंधिनी होने से इनमें बंधापेक्षा अवश्य परावर्तन होता है। १ इन प्रकृतियों में हास्य, रति, अरति, शोक, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ, यशःकीति और असातावेदनीय के सिवाय शेष सभी प्रकृतियां आदि के दो गुणस्थानों तक बंधती हैं । वहाँ उन प्रकृतियों की विरोधिनी प्रकृतियों (क्रमश:) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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