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पंवसंग्रह : ५
तीर्थंकरनाम और आयुकर्म का जीवस्वभाव से जघन्यतः भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निरन्तर बंध होता है और उत्कृष्ट से बंधकाल का प्रमाण पूर्व में कहा जा चुका है।
इस प्रकार के समस्त बंध प्रकृतियों के बंधकाल को जानना चाहिये । अब ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की बंधकाल की अपेक्षा जो विशेषता है, उसके भंगों को बतलाते हैं कि 'भंगतिगं निच्चबंधीण' अर्थात् नित्यबंधि-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंधकाल की अपेक्षा तीन भंग जानना चाहिये-१ अनादि-अनन्त, २ अनादि-सांत, और ३ सादि-सांत । इनमें से अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त बंधकाल है। क्योंकि वे अनादिकाल से बंधती रहती हैं, जिससे अनादि हैं और भविष्यकाल में किसी भी समय बंध का विच्छेद होने वाला नहीं होने से अनंत हैं तथा जो भव्य अभी तक मिथ्यात्व से आगे बड़े नहीं, किन्तु अब बढ़ेंगे और ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का बंधविच्छेद करेंगे, ऐसे भव्यों की अपेक्षा अनादि-सांत तथा उपशमणि से पतित हुए जीवों की अपेक्षा सादिसांत है तथा अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के अध्र वबंधिनी होने से उनका काल सादि-सांत जानना चाहिये।
का बंध होने से एवं उनके परावर्त मान होने से अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक बंध नहीं सकती हैं तथा आहारकद्विक के सिवाय हास्य, रति आदि सभी प्रकृतियां छठे गुणस्थान तक अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ परावर्तन रूप से बंधती रहती हैं और सातवें, आठवें गुणस्थानों का अन्तमुहूर्त से अधिक काल नहीं है, जिससे आहारकद्विक का अन्तमुहूर्त उत्कृष्ट बंधकाल है तथा उनका जो एक समय बंधकाल कहा गया है, वह सातवें या आठों गुणस्थान में जाकर एक समय बंध करके मरण प्राप्त करने वाले की अपेक्षा समझना चाहिये ।
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