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________________ पंचसंग्रह : ५ पूर्वकोटि वर्ष की आयु वालों के ही घटित होती है। क्योंकि वे ही अपनी आयु के दो भाग जाने के अनन्तर तीसरे भाग के प्रारम्भ में परभव की आयु बांध सकते हैं। परभव की आयु का उत्कृष्ट बंध और उत्कृष्ट अबाधा, यह भंग भी उन्हीं जीवों में घटित हो सकता है जो पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में आयु बांधते हैं और वह भी उत्कृष्ट आयु बांधते हैं। किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि पूर्व कोटि वर्ष की आयु वाले सभी जीव दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में ही आयु बांधते हैं। क्योंकि कितने ही तीसरे भाग में, कितने ही तीसरे भाग के तीसरे भाग में, यानी कुल आयु के नौवें भाग में, कितने ही नौवें भाग के तीसरे भाग में यानी कुल आयु के सत्ताईसवें भाग में, यावत् कितने ही अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में भी पारभविक आयु का बंध करते हैं। जितनी अपनी मुज्यमान आयु शेष रहे और पारभविक आयु बंध हो, उतना अबाधाकाल है । यह अबाधाकाल भुज्यमान आयु सम्बन्धी समझना चाहिए किन्तु परभवायु सम्बन्धी नहीं तथा भुज्यमान आयु जिस समय पूर्ण हो, उसके अनन्तर समय में ही परभव की आयु का उदय होता है। बीच में एक भी समय का अन्तर नहीं रहता है । जीवस्वभाव के कारण निषेकर चना ही इस प्रकार से होती है कि भुज्यमान आयु के एक भी स्थान में नहीं होती है किन्तु अनन्तर समय के प्रारम्भ से ही होती है। यानी भूज्यमान आयु पूर्ण हो कि उसके पश्चाद्वर्ती समय में ही परभव की आयु का उदय होता है। इस प्रकार दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में आयु का बंध और पूर्वकोटि का तीसरा भाग रूप उत्कृष्ट अबाधा यह सब कथन पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले की अपेक्षा से कहा है, इसलिये उक्त कथन संगत है। इस प्रकार परभव की आयु वांघने वाले पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के पूर्वकोटि का तीसरा भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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