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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
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__अब यदि इस प्रकार के स्थितिस्थानों का समस्त एकेन्द्रियों की अपेक्षा विचार किया जाये तो वे सबसे स्तोक थोड़े हैं-'एगिदियाण थोवाइं होंति'। क्योंकि उनके जघन्य स्थितिबंध और उत्कृष्ट स्थितिबंध के बीच में पल्योपम के असंख्यातवें भाग का ही अन्तर है । अर्थात् उनका जितना जघन्य स्थितिबंध है, उससे उत्कृष्ट स्थितिबंध पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक है, जिससे उनके स्थितिस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने ही होते हैं। इसीलिए 'थोवाइं होंति सव्वाण'-सबसे स्तोक-अल्प होते हैं।
एकेन्द्रियों के स्थितिस्थानकों से 'बंदीण असंखेज्जाणि'-द्वीन्द्रियों के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं और उसके बाद उत्तरोत्तर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों पर्यन्त स्थितिस्थान संख्यातगुणे-संख्यातगुणे जानना चाहिये---संखगुणियाणि जह उप्पिं'। जिसका तात्पर्य यह हुआ
१-४ सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानक सबसे अल्प हैं। उससे 'अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं। उससे सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं। उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं । ये सभी मिलकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग गत समय प्रमाण हैं । ___ यहाँ यह समझना चाहिये कि संक्लेश और विशुद्धि का आधार योग है । योगव्यापार की अल्पाधिकता के अनुसार विशुद्धि या संक्लेश अल्पाधिक होता है। स्थितिबंध का आधार संक्लेश या विशुद्धि है। जैसे-जैसे संक्लेश अधिक हो वैसे-वैसे स्थिति का बंध अधिक और संक्लेश कम एवं विशुद्धि अधिक तो स्थिति का बंध अल्प होता है । एकेन्द्रियों में बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय का योग सबसे अधिक है, उससे सूक्ष्म पर्याप्त का, उसके बादर अपर्याप्त का और उससे सूक्ष्म अपर्याप्त का अल्प है। संक्लेश और विशुद्धि में भी यही क्रम है।
१ पल्योपम का असंख्यातवां भाग बड़ा-बड़ा लेने से उपर्युक्त अल्पबहुत्व
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