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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८
(घ) पूर्व में कही गई मनुष्यगति में उदययोग्य इक्कीस प्रकृतियों के साथ आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने और मनुष्यगत्यानुपूर्वी को कम करने पर आहारक संयतों की अपेक्षा पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(ङ) पूर्व में देवों में कहे गये इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में से देवगत्यानुपूर्वी को कम करके वैक्रियद्विक, उपघात, प्रत्येक और समचतुरस्रसंस्थान इन पांच प्रकृतियों को मिलाने पर शरीरस्थ देव की अपेक्षा पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(च) शरीरस्थ नारक की अपेक्षा पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानों में से नरकगत्यानुपूर्वी को कम करके वैक्रियशरीरद्विक, हुण्डसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। - ५-(क) एकेन्द्रियप्रायोग्य पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ्वासनाम को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास का उदय न होकर आतप और उद्योत में से किसी एक का उदय होता है तब उसके भी छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है तथा बादर वायुकायिक के वैक्रियशरीर को करते समय उच्छवासपर्याप्ति से पर्याप्त होने पर पच्चीस प्रकृतियों में उच्छ्वास के मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है।
(ख) द्वीन्द्रियप्रायोग्य इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिकद्विक, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसंहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने एवं तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करने पर शरीरस्थ द्वीन्द्रिय जीव की अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार शरीरस्थ त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीव की अपेक्षा भी छब्बीस
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