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पंचसंग्रह : ५
नीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, हुंडकसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, अस्थिर, अनादेय, अयशःकीर्ति, नीचगोत्र और अन्तरायपंचक इन छप्पन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणामो चारों गति के मिथ्या दृष्टि जीव करते हैं तथा हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, आदि और अन्त को छोड़कर मध्यम संस्थानचतुष्क और मध्यम संहननचतुष्क इन बारह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी जीव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं।
इस प्रकार से समस्त अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद गाथोक्त आतप आदि शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाते हैं
आतप, उद्योत, तिर्यंचायु और मनुष्यायु इन चार शुभ प्रकृतियों का 'सयलसुभाणुक्कोसं' अर्थात् समस्त शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध विशुद्ध परिणामी जीव करते हैं, के नियमानुसार सुविशुद्ध संज्ञी मिथ्या दृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं ।
इन चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध को मिथ्या दृष्टि जीव के करने परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं करने का कारण यह है कि तिर्यंचायु, आतप और उद्योत इन तीन प्रकृतियों को तो सम्यग्दृष्टि जीव बांधते ही नहीं हैं। जिससे सम्यग्दृष्टि के लिए उनके अनुभागबंध का विचार ही नहीं किया जा सकता है और मनुष्यायु का उत्कृष्ट अनुभागबंध उसका तीन पल्योपम प्रमाण आयु बांधने वाले के होता है, किन्तु उससे न्यून बांधने वाले अन्य किसी को होता नहीं है । सम्यग्दृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य तो मनुष्यायु का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि वे तो मात्र देवायु का ही बंध करते हैं। यद्यपि सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यायु को बांधते हैं किन्तु कर्मभूमियोग्य संख्यात वर्ष प्रमाण ही आयु बांधते हैं। अकर्मभूमियोग्य असंख्यात वर्ष की नहीं बांधते हैं। क्योंकि भवस्वभाव से देव और नारक वहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिये मनुष्यायु आदि चार प्रकृतियों के
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