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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ २४३ अप्रशस्त - अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणामी संज्ञी मिथ्यादृष्टि एक समय मात्र करता है - 'सन्नी करेइ मिच्छो समयं उक्कोस अणुभागं' । इस सामान्य कथन का विशद अर्थ इस प्रकार है नरकत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्यादृष्टि संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य करता है ।1 क्योंकि देव और नारक भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । एकेन्द्रियजाति और स्थावर इन दो प्रकृतियों का भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देव ही उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि उनके बंधकों में यही अति संक्लिष्ट परिणाम वाले हैं । यदि वैसे परिणाम मनुष्यों और तिर्यंचों के हों तो वे नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों को बांधते हैं और जब मन्द संक्लेश हो तब उनके अशुभ होने से उत्कृष्ट अनुभागबंध सम्भव नहीं है तथा नारक और ईशान स्वर्ग से ऊपर के वैमानिक देव भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों को बांधते ही नहीं हैं। इसलिए इन दो प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी उक्त अतिसंक्लिष्ट परिणामी देव हैं । तिर्यंचद्विक और सेवार्त संहनन, इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंधक अतिसंक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि देव अथवा नारक हैं। अतिसंक्लिष्ट परिणामी मनुष्य तिर्यंचों के नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने से वे उक्त प्रकृतियों का बंध ही नहीं कर सकते हैं । तथा पूर्वोक्त से शेष रही ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेद १ उत्कृष्ट अनुभागबंध-स्वामित्व के वर्णन में अतिसंक्लिष्ट से तत्तत् प्रकृतिबंधप्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम ग्रहण करना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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