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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११०
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के दलिक संभव हैं । परन्तु ऊपर के गुणस्थानों में मरण को प्राप्त कर चौथा गुणस्थान लेकर देवलोक में जाये तो अन्य भी गुणश्रेणियां साथ ले जाता है । जैसे कि उपशमश्र णि में मरण को प्राप्त कर उसके निमित्त से हुई गुणश्रेणि को लेकर अनुत्तर विमान में भी उत्पन्न होता है ।
इस प्रकार से गुणश्रेणियों का स्वरूप और नारकादि भवों में संभव गुणणियों का निर्देश करने के बाद अब उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व का निरूपण करते हैं । उसमें भी पहले सामान्य से संभव उत्कृष्ट, जघन्य प्रदेशोदय के स्वामी को बतलाते हैं । सामान्यतः उत्कृष्ट, जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व
उक्को सपए सुदयं गुणसेढीसीसगे गुणिय कम्मो । सव्वासु कुणइ ओहेण खवियकम्मो पुण जहन्नं ॥ ११० ॥
शब्दार्थ –उक्कोसपएसुइयं - उत्कृष्ट प्रदेशोदय, गुणसेढीसीसने - गुणश्र ेणिशीर्ष पर वर्तमान, गुणियकम्मो गुणित क्रमश सव्वासु - सभी प्रकृतियों का, कुणइ करता है, ओहेण -- सामान्य से, खवियकम्मो - क्षपितकर्माश, पुणपुनः, जहन्नं - जघन्य |
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गाथार्थ - सामान्य से गुणश्र ेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश जीव सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय और क्षपितकर्माश जीव जघन्य प्रदशोदय करता है ।
विशेषार्थ - विस्तार से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों का निर्देश करने के लिये यहाँ भूमिका रूप में उनके योग्य जीवों की योग्यता का सामान्य से कथन किया है ।
पहले उत्कृष्ट प्रदेशोदय के संभव स्वामी के संकेत के लिए बताया है 'गुणसेढीसीस गुणिय कम्मो' अर्था1 गुणश्रेणि के शीर्ष भाग - अग्रभाग पर वर्तमान गुणितकर्माश जीव सामान्य से समस्त कर्मप्रकृतियों का 'उक्को सपएसुदयं कुणइ' उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है । अर्थात् सामान्य
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