________________
पंचसंग्रह
चाहिये। क्योंकि इनकी उत्तरप्रकृतियां परस्पर परावर्तमान होने से एक साथ दो, तीन उदय को प्राप्त नहीं होती हैं, किन्तु एक समय में किसी एक का ही उदय होता है ।
७४
दर्शनावरण- दर्शनावरणकर्म के दो उदयस्थान हैं- चारप्रकृतिक और पांचप्रकृतिक । यदि चार हों तो चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण ये चार प्रकृतियां और यदि पांच हों तो पांच निद्राओं में से किसी एक निद्रा को मिलाने पर पांच प्रकृतियां उदय में होती हैं । परन्तु निद्राएँ अध्रुवोदया हैं और परस्पर विरुद्ध होने से किसी समय निद्रा का उदय नहीं भी होता है और जब हो तब पांच में से किसी एक का उदय होता है। जिससे दर्शनावरणकर्म के यही दो उदयस्थान सम्भव हैं । 1
दर्शनावरणकर्म के इन दो उदयस्थानों में से चार से पांच के उदय में जाने पर एक भूयस्कार और पांच से चार के उदय में जाने पर एक अल्पतर होता है। अवस्थितोदय दो हैं क्योंकि दोनों उदय
१ गो. कर्मकाण्ड गा० ४६१ में दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों और उनके स्वामियों को विशेषता के साथ स्पष्ट करते हुए इस प्रकार बतलाया है
खोणोत्ति चारि उदया पंचसु णिद्दासु दोसु णिद्दासु । एक्के उदयं पत्त खीणदुचरिमोत्ति पंचुया ।। ४६१ ॥
अर्थात् दर्शनावरण की चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियों का उदय रूप स्थान जागृतावस्थान वाले क्षीणकषायगुणस्थान पर्यन्त होता है और निद्रावान जीव के प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त पांच निद्राओं में से एक का उदय होने पर पांच प्रकृति रूप स्थान तथा क्षीणकषाय के अन्त के समीप के समय तक निद्रा और प्रचला इन दो निद्राओं में से एक का उदय होने पर दर्शनावरण का पांच प्रकृति रूप उदयस्थान जानना चाहिए ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org