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बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८
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गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियों का बंध होने पर सत्ताईसवां अल्पतर एवं ग्यारहवें गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंध होने से अट्ठाईसवां अल्पतर होता है ।
इस प्रकार सामान्य से सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में अट्ठाईस अल्पतरबंध जानना चाहिये ।
अवस्थित और अवक्तव्य गंध - 'बंधस्थानों के समान सर्वत्र अवस्थित बंध होते हैं' इस नियम के अनुसार अवस्थितबंध उनतीस हैं तथा यहाँ अवक्तव्यबंध घटित नहीं होता है । इसका कारण यह है कि समस्त उत्तरप्रकृतियों का अबंध अयोगिकेवलिगुणस्थान में होता है, किन्तु वहाँ से प्रतिपात नहीं होने से अवक्तव्यबंध घटित नहीं होता है।
इस प्रकार से ज्ञानावरणादि कर्मों की अपनी-अपनी उत्तरप्रकृतियों के और सामान्य से सभी उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंध जानना चाहिये। अब उदयस्थानों में भूयस्कार आदि के विचार का अवसर प्राप्त है । यह विचार दो प्रकारों से किया जायेगा । पहला ज्ञानावरणादि एक-एक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों की अपेक्षा से और दूसरा सामान्य से सभी प्रकृतियों के उदयस्थानों की अपेक्षा । उनमें से पहले एक-एक ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों का विचार करते हैं ।
ज्ञानावरणादि की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थान
ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय इन पांचों कर्मों में एक-एक उदयस्थान होता है। जो इस प्रकार समझना चाहिये
ज्ञानावरण और अन्तराय इन दोनों कर्मों की पांचों उत्तरप्रकृतियों का प्रति समय उदय होने से पांच-पांच प्रकृतियों का समूह रूप एकएक उदयस्थान है तथा वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक-एक प्रकृति ही उदयप्राप्त होने से उनका एक-एक उदयस्थान जानना
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