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________________ विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८ १८१ पृथक्-पृथक् नामोल्लेख पूर्वक बताई गई प्रकृतियों की जघन्य स्थिति से शेष रही प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानने का सामान्य नियम यह है कि उन उनकी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध आये वह उन-उनकी जघन्य स्थिति है - 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईए जं लद्ध" । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है निद्रा आदि निद्रापंचक और असातावेदनीय इनकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और 'शून्यं शून्येन पातयेत्' नियम के अनुसार शून्य को शून्य से काट देने पर ३ / ७ सागरोपम लब्ध आता है, उतनी निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति है । इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय की ७/७ सागरोपम यानि एक सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थिति समझ लेना चाहिए । संज्वलन के सिवाय शेष बारह कषायों की ४/७ सागरोपम जघन्य स्थिति है तथा सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से काटने पर ऊपर अठारह और नीचे सत्तर रहे। इन दोनों संख्याओं में दो से भाग देने पर ऊपर नौ और नीचे पैंतीस शेष रहेंगे । इसलिए ९ / ३५ सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक इन छह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये । स्त्रीवेद और मनुष्यद्विक की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से काटने के बाद ऊपर नीचे की संख्याओं को पांच से काटने पर ३ / १४ सागरोपम प्रमाण स्त्रीवेद और मनुष्यद्विक इन तीन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिए । हास्य, रति और यशः कीर्ति को छोड़कर शेषं स्थिरादिपंचक, शुभविहायोगति, सुरभिगंध, शुक्लवर्ण, मधुररस, मृदु, लघु, स्निग्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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