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प्रतिभा का घात करे, यह पराघात का लक्षण श्वेताम्बर परम्परा मान्य है, जबकि दिगम्बर परम्परा में जिस कर्म के उदय से दूसरे के घात करने वाले अवयव होते हैं,' उसे पराघात नामकर्म कहा है ।
४१ - जिस कर्म के उदय से मस्तक, हड्डियाँ, दाँत आदि शरीरावयव स्थिर हों, वह स्थिरनाम और इसके विपरीत जिस कर्म के उदय से जिह्वा आदि शरीरावयवों में अस्थिरता हो वह अस्थिरनाम है । जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ और नाभि से नीचे के अवयव अशुभ माने जायें वह अशुभ नामकर्म है । यह श्वेताम्बर साहित्य में माना है । लेकिन दिगम्बर साहित्य में उक्त चारों के लक्षण इस प्रकार माने हैं - जिस कर्म के उदय से शरीर के धातु उपधातु यथास्थान स्थिर रहें यह स्थिरनाम और धातु - उपधातु स्थिर न रह सकें वह अस्थिर नाम है । जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों वह शुभ तथा सुन्दर न हों, वह अशुभ नामकर्म है ।
४२ - श्वेताम्बर साहित्य में 'जिस कर्म के उदय से मनुष्य की प्रवृत्ति, वाणी को लोक प्रमाण माने वह आदेय नाम और इसके विपरीत अनादेय नामकर्म का लक्षण माना है । लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रभायुक्त शरीर के होने को आदेय कर्म का और शरीर में प्रभा न होने को अनादेय कर्म का लक्षण कहा है ।
४३ - दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर साहित्य मान्य बंधननामकर्म के पन्द्रह भेद न मानकर पाँच भेद माने हैं और शरीरनाम के पाँचों शरीर के संयोगी पन्द्रह भेद माने हैं । जबकि श्वेताम्बर साहित्य में शरीरनाम के पाँच भेद स्वीकार किये हैं ।
४४——श्वेताम्बर कर्म साहित्य में संज्वलन लोभ रहित पन्द्रह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, आतप, पुरुषवेद इन छब्बीस प्रकृतियों को समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदया माना है। लेकिन दिगम्बर परम्परा में इनके
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