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________________ ( २६ ) और दिगम्बर साहित्य में प्रचला का यह लक्षण है--जिसके उदय से जीव कुछ जागता और कुछ सोता रहे। ३६-श्वेताम्बर साहित्य में चलते-चलते जो नींद आती है, उसे प्रचला-प्रचला कहा है और दिगम्बर साहित्य में जिसके उदय से सोते में जीव के हाथ पैर भी चलें और मुह से लार भी गिरे, यह अर्थ किया है। ३७-दिगम्बर साहित्य में जुगुप्सामोहनीय का अर्थ स्वदोष छिपाना और पर-दोष प्रगट करना कहा है और श्वेताम्बर कर्म साहित्य के शुभ या अशुभ वस्तु के सम्बन्ध में ग्लानि भाव, घृणा होने रूप किया है। ३८-श्वेताम्बर कर्म साहित्य में मिश्र एवं सम्यक्त्व मोहनीय के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-जिस कर्म के उदय से जिनप्ररूपित तत्त्व की न तो यथार्थ श्रद्धा हो और न अश्रद्धा हो, रुचि-अरुचि में से एक भी न हो, वह मिश्रमोहनीय है तथा जिस कर्म के उदय से जिनप्रणीत तत्त्व की सम्यक श्रद्धा हो वह सम्यक्त्वमोहनीय है। और दिगम्बर साहित्य में यह लक्षण किये हैं-जिस कर्म के उदय से जीव की तत्त्व के साथ अतत्त्व की, सन्मार्ग के साथ उन्मार्ग की और हित के साथ अहित की मिश्रित श्रद्धा होती है, उसे मिश्रमोहनीय एवं जिस कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन तो बना रहे, किन्तु उसमें चल-मलिन आदि दोष उत्पन्न हों, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। ३६-श्वेताम्बर साहित्य में आनुपूर्वी का लक्षण इस प्रकार बताया है-विग्रह द्वारा एक भव से दूसरे भव में जाते जीव की आकाश प्रदेश की श्रेणि के अनुसार गति होना आनुपूर्वी नामकर्म है और इसका उदय वक्रगति से जाने पर होता है और दिगम्बर परम्परा में जिसके उदय से विग्रहगति में जीव का आकार पूर्वशरीर के समान बना रहे यह माना है । ४०-'जिस कर्म के उदय से जीव ओजस्वी हो, दर्शन मात्र अथवा वचन सौष्ठवता से सभा के सदस्यों में त्रास उत्पन्न करे, प्रतिवादी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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