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( २५ ) २६-मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में कार्मग्रन्थिक मतानुसार अज्ञानत्रिक और चक्षु-अचक्षु दर्शन, कुल पाँच उपयोग होते हैं। जबकि सिद्धान्त में अवधिदर्शन सहित छह उपयोग माने हैं। दिगम्बर साहित्य का मत कार्मग्रन्थिक मत जैसा है ।
३०-कार्मग्रन्थिकों ने मनुष्यगति में पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप दो जीवस्थान माने हैं, और सिद्धान्त में उक्त दो के साथ अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान भी बताया है।
३१-दिगम्बर साहित्य में मनोयोग में एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान माना है और श्वेताम्बर साहित्य में अपर्याप्त-पर्याप्त संज्ञी इन दो जीवस्थानों के होने का संकेत किया है।
३२-सिद्धान्त में असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो में मात्र नपुसकवेद माना है और कार्मग्रन्थिक मतानुसार इनमें पुरुषवेद और स्त्रीवेद भी है।
३३-कार्मग्रन्थिकों ने अज्ञानत्रिक मार्गणाओं में आदि के तीन गुणस्थान माने हैं। लेकिन सिद्धान्त के मतानुसार प्रथम, द्वितीय ये दो गुणस्थान हैं। दिगम्बर परम्परा में भी अज्ञानत्रिक में आदि के दो गुणस्थान होने का मत स्वीकार किया है।
३४-सिद्धान्त में अवधिदर्शन में पहले से लेकर बारहवें तक बारह गुणस्थान माने हैं। लेकिन कतिपय कार्मग्रन्थिक आचार्य चौथे से बारहवें तक नौ गुणस्थान और कुछ तीसरे से बारहवें तक दस गुणस्थान मानते हैं। दिमम्बर परम्परा में भी इन दोनों मतों का उल्लेख है।
३५-श्वेताम्बर साहित्य में सुखपूर्वक जागना हो जाये उसे निद्रा कहा है, जबकि दिगम्बर परम्परा ने निद्रा का अर्थ किया है कि जीवगमन करते हुए भी खड़ा रह जाये, बैठ जाये, गिर जाये । इसी प्रकार प्रचला के लक्षण में भी भिन्नता है । श्वेताम्बर साहित्य में प्रचला का लक्षण बताया है कि जिस निद्रा में बैठे-बैठे या खड़े-खड़े नींद आये
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