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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०-११ भाग के भेद से, चउरिवह-चार प्रकार का, एक्केक्को एक-एफ, उक्कोसाणुक्कोसजहन्नअजहरया-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य के भेद से, तेसि-उनके । तेवि-वे भी, हु-- अवश्य ही, साइअणाईधुवअधुवभेयओ-सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व के भेद से, पुणो-पुनः, चउहा-चार प्रकार के, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पुण–पुनः, नेया-जानना चाहिये, मूलुत्तरपयइभेएणंमूल और उत्तर प्रकृति के भेद से। गाथार्थ-पूर्वोक्त अनादि-अनन्त आदि एक-एक बंध के प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के रूप से चार-चार भेद होते हैं और वे प्रकृति बध आदि प्रत्येक के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ऐसे चार-चार भेद हैं तथा वे उत्कृष्ट आदि प्रत्येक भेद भी पुनः सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व-इस तरह चार-चार प्रकार के हैं और वे प्रत्येक मूल एवं उत्तर प्रकृति के भेद से दो-दो भेद वाले हैं। विशेषार्थ-पूर्व की गाथा में जो अनादि-अनन्त आदि बंध के भेद बतलाये हैं, उनके और प्रकारों तथा उन प्रकारों के भी अवान्तर प्रकारों का इन दो गाथाओं में निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वोक्त अनादि-अनन्त आदि बंध के प्रत्येक भेद प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के भेद से चार-चार प्रकार के हैं। यानी पूर्वोक्त बंध के तीन भेद प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध और अनुभागबंध इन चारों में घटित होते हैं। जैसे कि प्रकृतिबंध अभव्य के अनादिअनन्त, भव्य के अनादि-सांत तथा यहाँ सांपरायिकबंध की विवक्षा होने से और उपशान्तमोहगुणस्थान में सांपरायिकबंध नहीं होने से किन्तु वहाँ से पतित होने पर पुनः प्रकृतिबंध होने से सादि-सांत, इस तरह जैसे पूर्व में सामान्य बंध के प्रसंग में घटित किये हैं उसी प्रकार यहाँ प्रकृतिबंध में भी घटित करें। इसी प्रकार स्थितिबंध आदि के लिए भी समझ लेना चाहिये। www.jainelibrary.org | Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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