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________________ बंधविवि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ उदीरणा नहीं होती है, अत: उस समय वे सात कर्म के उदीरक होते हैं। इसका कारण यह है कि उदयावलिका से ऊपर की स्थिति में से दलिकों को खींचकर उदयावलिका के साथ भोगने योग्य करने को उदीरणा कहते हैं, किन्तु यहाँ तो मात्र एक आवलिका ही शेष है और ऊपर की सब स्थिति भोगी जा चुकी है, इस कारण ऊपर से खींचने योग्य दलिक नहीं होने से उस एक आवलिका काल आयु के बिना शेष सात कर्मों के उदीरक होते हैं। लेकिन तीसरा मिश्रगुणस्थान इसका अपवाद है। उसके विषय में इतनी विशेषता जानना चाहिये कि सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान में वर्तमान सभी जीव सर्वदा आठों कर्मों के उदीरक होते हैं। क्योंकि आयु की अन्तिम एक आवलिका शेष रहने पर मिश्रगुणस्थान ही असम्भव है। इसका कारण यह है कि अन्तमुहूर्त आयु शेष रहने पर मिश्रगुणस्थानवर्ती सभी जीव तथास्वभाव से उस गुणस्थान को छोड़कर चौथे अथवा पहले गुणस्थान में चले जाते हैं, उनके तीसरा गुणस्थान रहता ही नहीं है । सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों के सभी जीव वेदनीय और आयु के बिना शेष छह कर्म के उदीरक होते हैं । अप्रमत्तदशा के परिणामों के कारण इन गुणस्थानों में वेदनीय और आयु की उदीरणा होती नहीं है- 'वेयआउवज्जाणं सुहमो।' इसीलिए इन दो कर्मों की उदीरणा का यहाँ निषेध किया है । लेकिन इतना विशेष समझना चाहिये कि यदि क्षपकश्रेणिगत सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय करते-करते सत्ता में एक आवलिका शेष रहे तब उस अन्तिम आवलिका में मोहनीय के बिना पाँच कर्मों की उदीरणा होती है और उपशम श्रेणि में तो मोह की सत्ता अधिक होने से चरम समय पर्यन्त उदीरणा होती है । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में जो छह कर्म की उदीरणा बताई है, वह उपशम श्रोणि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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