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________________ ४५६ पंचसंग्रह : ५ एवं चार बार मोहनीय का उपशम करके पुन: एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ मात्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल रहकर मनुष्य में उत्पन्न हो और इस मनुष्यभव में शीघ्र मोह का क्षय करने के लिए उद्यत हो । तब वहाँ उक्त प्रकृतियों का यथायोग्य रीति से क्षय करते-करते प्रत्येक के अंतिम खंड का भी क्षय हो और मात्र उदयावलिका शेष रहे तथा उस चरम समय का भी स्तिबुकसंक्रम द्वारा क्षय होते-होते जब स्वरूप की अपेक्षा एक समय प्रमाण स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति रहे तब जो जघन्यतम प्रदेशसत्ता हो, वह पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता है । इस पहले प्रदेशसत्कर्मस्थान में एक परमाणु का प्रक्षेप करने पर दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। अर्थात् जिस जीव के एक अधिक परमाणु की सत्ता हो उसका दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, दो परमाणुओं का प्रक्षेप करने पर तीसरा और तीन परमाणुओं का प्रक्षेप करने पर चौथा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। इस प्रकार एक-एक परमाणु का प्रक्षेप करते-करते भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिए यावत् जो चरम स्थिति विशेष में गुणितकर्माश जीव के सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इसके बाद एक भी अधिक परमाणु वाला अन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान नहीं होता है । इन प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह को स्पर्धक कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उदपावलिका के चरम समय में अनुदयावलिका की चरम स्थिति स्वरूपसत्ता से नहीं किन्तु पररूप से होती है और उपान्त्य समय में स्वरूपसत्ता से होती है । अतएव उपान्त्य समय स्वरूपसत्ता का और चरम समय पररूपसत्ता का, इस तरह दो समय का संकेत किया है। २ कर्म प्रकृति के सत्ताधिकार की चूर्णि में एक-एक परमाणु के प्रक्षेप के बदले एक-एक कर्म स्कन्ध की वृद्धि करने का संकेत किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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