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बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
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(ग) वैक्रियशरीर करने वाले मनुष्यों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के पराघात और प्रशस्त - विहायोगति के मिलाने से मनुष्यों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये ।
(घ) आहारक संयत के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियों के मिलाने से आहारक मनुष्यों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
(ङ) अतीर्थंकर केवली के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने से भी सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये ।
(च) देवों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति के मिलाने से देवों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
(छ) नारकों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और अप्रशस्त विहायोगति के मिलाने से नारकों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
७ (क) शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए द्वीन्द्रिय जीवों के पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अप्रशस्त विहायोगति और पराघात इन दो प्रकृतियों को मिलाने से द्वीन्द्रियप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । किन्तु वहाँ त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये ।
(ख) तिर्यंच पंचेन्द्रियों के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों की अपेक्षा पराघात और प्रशस्त और
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