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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५३
१६५ इस प्रकार से प्रत्येक कर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध में प्राप्त होने वाले अर्ध-अर्धहानि के स्थान के बारे में और उसके साथ ही निषेकरचना के क्रम के बारे में भी समझ लेना चाहिए। अब क्रमप्राप्त अबाधा और कंडक की प्ररूपणा करते हैं। अबाधा, कडक प्ररूपणा
उक्कोसठिईबंधा पल्लासंखेज्जभागमित्तेहिं ।
हसिएहिं समएहिं हसइ अबाहाए इगसमओ॥५३।। शब्दार्थ-उक्कोसठिईबंधा-उत्कृष्ट स्थितिबंध से, पल्लासखेज्जभागमित्तेहि-पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र, हसिएहि-कम होने पर, समएहि-समयों के, हसइ-कम होता है, अबाहाए-अबाधा का, इगसमओएक समय ।
गाथार्थ-उत्कृष्ट स्थितिबंध से प्रारम्भ कर पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र समयों के कम होने पर अबाधा का एक समय कम होता है।
विशेषार्थ-गाथा में बताया है कि अबाधा के समयों में किस क्रम से समय कम होता है--
'उकोसठिईबंधा' अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र समयों के कम होने पर उत्कृष्ट अबाधा का एक समय कम होता है अर्था । उत्कृष्ट अबाधा एक समय न्यून होती हैहसइ अबाहाए इगसमओ'। इस क्रम से हीन-हीन अबाधा तब तक जानना चाहिए जब जघन्य स्थिति की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य अबाधा हो जाये। __इस विषय में सैद्धान्तिक-शास्त्रीय निर्देश इस प्रकार है कि चारों आयु को छोड़कर शेष समस्त कर्मों की उत्कृष्ट अबाधा में जीव वर्तमान हो तब उत्कृष्ट-परिपूर्ण स्थिति का बंध करे अथवा एक समय हीन अथवा दो समय हीन स्थिति का बंध करे, इस प्रकार यावत् समय-समय न्यून
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