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________________ ३७२ पंचसंग्रह : ५ नारयतिरियदुग दुभगाइनीय मणुयाणुपुव्विगाणं तु । दंसणमोहक्खवगो तइयगसेढी उ पडिभग्गो ॥ ११७ ॥ शब्दार्थ - नारयतिरिययुग-नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, दुभगाइ - दुर्भग आदि, नीय - नीचगोत्र, मणुयाणुपुव्विगाणं --- मनुष्यानुपूर्वी का, तु-और, दंसणमोहक्वगो—दर्शनमोहक्षपक है, तइयगसेढी तीसरी गुणश्र ेणि, उ-और, पडिभग्गी- पतित । गाथार्थ – नरकद्विक, तियंचद्विक, दुर्भगादि अर्थात् दुर्भाग, अनादेय और अयशः कीर्ति, नीचगोत्र और मनुष्यानुपूर्वी का उत्कृष्ट प्रदेशोदय तीसरी गुणश्रेणि से पतित दर्शनमोहक्षपक के होता है । विशेषार्थ - दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का क्षय करने के लिये प्रयत्नवन्त अविरतसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के निमित्त गुणश्रेणि करे, उसके बाद वही देश विरति प्राप्त कर देशविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि करे और तत्पश्चात् वही सर्व विरति प्राप्त कर सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्र णि करे। यह देशविरति और सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्रेणि सम्यक्त्व के निमित्त से जो करण करता है उसी में करता है यानि चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए किए गए अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण में रहते देशविरति और सर्वविरति प्राप्त कर तत्सम्बन्धी गुणश्रेणि करे और तत्पश्चात् करण की समाप्ति के बाद जिसने दर्शनमोहनीयत्रिक का क्षय किया और जिसने तीसरी सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्रेणि करके वहाँ से गिरकर अविरतपना प्राप्त किया, उस अविरत जीव के सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति निमित्तक तीनों गुणश्रेणियों का शिरोभाग जिस स्थान पर मिलता है, उस स्थान पर रहते हुए उसी भव में दुभंग, अनादेय, अयशः कीर्ति और नीचगोत्र में से जिस-जिसका उदय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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