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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५
सासणमीसे मीसं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं ।
सासायणंत नियमा पंचसु भज्जा अओ पढमा ॥ १३५ ॥ शब्दार्थ - सासणमीसे- सासादन और मिश्र गुणस्थान में, मीसं - मिश्र - मोहनीय की, संतं - सत्ता, नियमेण — नियम से, नवसु-नो गुणस्थानों में, भइयव्वं भजनीय, सासायणंत - सासादन तक, निगमा - नियम से, पंचसु - पांच गुणस्थानों में, भज्जा - भजना से, अओ और उसके बाद, पढमाप्रथम अनन्तानुबंधिकषायों की ।
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गाथार्थ - सासादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की नियम से सत्ता होती है और नौ गुणस्थान में भजनीय है तथा सासादन तक पहली अनन्तानुबंधिकषायों की सत्ता नियम से और उसके बाद के पांच गुणस्थानों में भजना से सत्ता जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - 'सासणमीसे मीस संतं' यानि सासादन और मिश्र इन दूसरे, तीसरे दो गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की अवश्य सत्ता होती है। क्योंकि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला होता है और मिश्रमोहनीय की सत्ता के बिना मिश्रगुणस्थान नहीं है । इसीलिए सासादन और मिश्र . गुणस्थान मिश्रमोहनीय की अवश्य सत्ता है । किन्तु 'नवसु भइयव्वं' अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान पर्यन्त नौ गुणस्थानों में भजना से सत्ता जानना चाहिए | अर्था [ सत्ता होती भी है और नहीं भी होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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क्षायिक सम्यक्त्वी के मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम - क्षयोपशम सम्यक्त्वी के होती है। पहले गुणस्थान में अभव्य के और जिसने अभी तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया उसके मिश्रमोहनीय की सत्ता होती नहीं और सम्यक्त्व प्राप्त कर मिथ्यात्व में जाये तो जहाँ तक उवलना नहीं करे, वहाँ तक सत्ता होती है । इसी कारण नौ गुणस्थानों में भजना से मिश्रमोहनीय की सत्ता का निर्देश किया है ।
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