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पंचसंग्रह : ५
तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियां हैं। अतः जहाँ कहीं भी एकान्ततिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों का उल्लेख किया जाये वहाँ इन दस प्रकृतियों को समझना चाहिए । तथा
एवं नपुस गित्थी संतं छक्कं च बायर पुरिसुदए ।
समऊणाओ दोन्निउ आवलियाओ तओ पुरिसं ॥१३८॥ __ शब्दार्थ-एवं-इसी प्रकार, नपुंसगित्थी-नपुसक वेद और स्त्रीवेद, संत-सत्ता, छकं-हास्यादि पटक, च-और, बायर—बादरसंपरायगुणस्थान, पुरिसदए-पुरुषवेद के उदय में, समऊयाणो-समय न्यून, दोनिउदो, आवलियाओ-आवलिका, तओ-उसके बाद, पुरिसं-पुरुषवेद का ।
गाथार्थ-- इसी प्रकार पुरुषवेद के उदय में श्रेणि आरम्भ करने वाला बादरसंपरायगुणस्थान में नपुसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि षट्क का और उसके बाद समय न्यून दो आवलिका में पुरुषवेद का क्षय करता है। विशेषार्थ- गाथा में क्षपकश्रेणि के आरंभक की अपेक्षा नपुसकवेद, स्त्रीवेद हास्यादि षट्क और पुरुषवेद की सत्ता का विचार किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
इसी प्रकार अर्था । मध्यम आठ कषायों का क्षय करने के अनन्तर संख्यात स्थितिखण्डों का अतिक्रमण करने के बाद जैसे स्त्याद्धित्रिक और स्थावर आदि नामकर्म की तेरह कुल मिलाकर सोलह प्रकृतियों का क्षय किया, उसी प्रकार सोलह प्रकृतियों का क्षय करने के बाद संख्याता स्थितिखण्डों के व्यतीत होने पर नपुसकवेद का क्षय होता है और जब तक उसका नाश नहीं होता तब तक उसकी सत्ता होती है।
नपुसकवेद के क्षय के बाद संख्यात स्थितिखण्डों का अतिक्रम होने
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