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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४८ ४२३ सभी कर्मों के अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिस्थान से लेकर वहाँ तक नीचे आना चाहिये कि जहाँ एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति प्राप्त हो । उतनी स्थिति में जितने समय हों उतने स्थितिस्थान नाना जीवों की अपेक्षा सत्ता में निरन्तर रूप से प्राप्त होते हैं। यानि उतने स्थितिस्थानों में का कोई स्थितिस्थान किसी एक जीव को सत्ता में होता है और कोई स्थितिस्थान किसी दूसरे जीव को । इस प्रकार ये सभी स्थितिस्थान पंचेन्द्रिय से लेकर एकेन्द्रिय तक के जीवों में यथायोग्य रीति से निरन्तर रूपेण सत्ता में होते हैं । लेकिन एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति से नीचे के स्थितिस्थान क्षपकादि के अर्थात् क्षपकों, उद्बलना करने वालों आदि के 'संतराइपि' अर्थात् सांतर भी होते हैं और निरन्तर भी होते हैं। यानि कितने ही स्थान निरन्तर होते हैं और उसके बाद अंतर पड़ जाने से सांतर स्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - कोई जीव एकेन्द्रिययोग्य जघन्य स्थिति के उपरितन भाग से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखंडों का क्षय करना प्रारम्भ करे और जिस समय क्षय करना प्रारम्भ किया, उस समय से लेकर समय-समय नीचे के स्थानों में से उदयवती प्रकृतियों की समयसमय प्रमाण स्थिति अनुभव करने के द्वारा और अनुदयवती प्रकृतियों की समय-समय प्रमाण स्थिति स्तिबुकसंक्रम द्वारा क्षय होती है। इस प्रकार एक-एक स्थितिस्थान सत्ता में से कम होते जाने से प्रतिसमय भिन्न-भिन्न स्थितिविशेष सत्ता में घटित होते हैं । जैसे कि - एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति नीचे के प्रथम उदय समय भोगे जाने पर समयहीन होती है, दूसरे समय भोगे जाने पर दो समयहीन, तीसरे समय भोगे जाने पर तीन समय हीन होती है । इस प्रकार समयसमयहीन होने से अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण स्थान निरन्तर प्राप्त होते हैं। क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का घात करने में अन्तर्मुहूर्त काल बीतता है । अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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