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पंचसंग्रह : ५
पढमठिइचरमुदये बिइयठिईए व चरमसंछोभे । दो फड्डा वेयाणं दो इगि संतं हवा. एए ॥१८४॥ चरमसंछोभसमए एगा ठिई होइ त्थीनपुसाणं । पढमठिईए तदंते पुरिसे दाआलि दुसमूणं ॥१८॥
शब्दार्थ-पढमठिइचरमुदये-प्रथम स्थिति के चरम समय के उदय में, बिइयठिइए-द्वितीय स्थिति, व-और, चरमसंछोभे-चरम प्रक्षेप में, दोदो, फड्डा-स्पर्धक, वेयाणं-वेदत्रिक के, दो इगि-दूसरी और पहली, संत-सत्ता, हवा-अथवा, एए-ये दो स्पर्धक)।
चरमसंछोमसमए-चरम प्रक्षेप के समय में, एगा-यम, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, त्थीनपुसाण-स्त्री और नपुंसकवेद की, पढ मठिईए-प्रथम स्थिति के, तदंते-उसके अंत में, पुरिसे-पुरुषवेद की, दोआलि-दो आवलिका, दुसमुणं-दो समय न्यून ।।
गाथार्थ-प्रथम स्थिति के चरम समय के उदय और द्वितोय स्थिति के चरम प्रक्षेप में, इस तरह वेदत्रिक के दो सर्वक होते हैं। अथवा दोनों स्थितियों की सत्ता रहने तक का एक स्पर्धक और पहली या दूसरी कोई भी एक स्थिति शेष रहे उसका एक स्पर्धक, इस प्रकार प्रत्येक वेद के दो स्पर्धक होते हैं।
स्त्रीवेद और नपुसकवेद के चरम प्रक्षेप के समय प्रथम स्थिति का एक समय शेष रहता है ओर पुरुषवेद का प्रथम स्थिति के अन्त में दो समयोन दो आवलिका शेष रहती हैं।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में वेदत्रिक के दो स्पर्धक होने के कारण को विशेषता के साथ स्पष्ट किया है
पढमठिईचरमुदए' अर्थात् प्रथम स्थिति के चरम समय का जब उदय हो तब उस चरम स्थिति का एक स्पर्धक होता है और 'विइयठिई चरम संछोभे यानि दूसरी स्थिति के चरम प्रक्षेप-संक्रम से
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